उस नाख़ुदा के ज़ुल्मो-सितम, हाए क्या करूँ
कश्ती मिरी डिबोई है, साहिल के आस-पास
सदियों का ज़ह्र पी के जो, सोए वह क्या उठे
डसती है ज़िन्दगी की ख़लिश, बार-बार क्या
जिन्हें नाख़ुदा से उमीद थी, उन्हें नाख़ुदा ने डिबो दिया
जो उलझ के रह गए मौज से, वह कभी के पार उतर गए
जिस दिन यह हाथ फैले, अहले-करम के आगे
ऐ काश उससे पहले, हमको ख़ुदा उठा ले
टकरा के नाख़ुदा ने, मिरी कश्तिए-हयात
साहिल को मेरे वास्ते तूफ़ाँ बना दिया
नेमतें बेशुमार, पा कर भी
शुक्रे परवर दिगार, हो न सका
एहसाने-नाख़ुदा न गवारा हुआ हमें
ग़ैरत में आ के ख़ुद ही, सफ़ीने डिबो दिए
भरोसा नाख़ुदाओं का, मिरी कश्ती को ले डूबा
अगर तूफ़ाँ से लड़ जाते, तो बेड़ा पार हो जाता